ये छठ है, ये हठ है, तमाम पाखंडों से दूर प्रकृति से जुड़ने की हठ है :   डॉ. जूही  समर्पिता

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विशेष  : ये छठ है। ये हठ है। तमाम पाखंडों से दूर प्रकृति से जुड़ने की हठ है। नदी में घुलने की हठ है। रवि के साथ जीने की हठ है। रवि का साथ देने की हठ है।

कौन कहता है कि जो डूब गया सो छूट गया। कौन कहता है कि जो अस्त हो गया वो समाप्त हो गया। जैसे सूर्य अस्त होता है वैसे फिर उदय भी होता है। अगर एक सभ्यता समाप्त होती है तो दूसरी जन्म लेती है। अगर आत्मा अस्त होती है तो वो फिर उदय भी होती है ।  जो डूबता है वो फिर उभरता है। जो अस्त होता है वो फिर उदयमान होता है। जो ढलता है वो फिर खिलता भी है। यही चक्र छठ है। यही प्राकृतिक सिद्धांत छठ का मूल है। यही भारतीय संस्कृति है। छठ इसी प्रकृति चक्र और जीवन चक्र को समझने का पर्व है।

प्रारम्भ की भी और अंत की भी।  छठ सिर्फ महापर्व नहीं है छठ जीवन पर्व है। जीवन के नियमों को बनाने का संकल्प छठ है। उन नियमों का फिर पालन छठ है। अपनों का साथ, अपनों की पूजा छठ है। घर की तरफ लौटने का नाम छठ है। सात्विकता का सामूहिक संकल्प छठ है।  प्रकृति का हनन रोकना छठ है।

सुख सुविधा को त्यागकर कष्ट को पहचानने का नाम छठ है। शारीरिक और मानसिक संघर्ष का नाम छठ है। छठ सिर्फ प्रकृति की पूजा नहीं है। ये व्यक्ति की भी पूजा है। व्यक्ति प्रकृति का ही तो अंग है। छठ प्रकृति के हर उस अंग की उपासना है जो हठी है। जिसमें कुछ कर गुजरने की, कभी निराश न होने की, कभी हार ना मानने की, डूब कर फिर खिलने की , गिर कर फिर उठने की  हठ छठ है, हठ अस्तोदय होते सूर्य में है।

 

इसलिए छठ नदियों की पूजा है, सूर्य की पूजा है, परम्पराओं की पूजा है। जल अर्घ्य देने की पूजा है। व्रत करने वाले व्रतियों की पूजा है। क्योंकि छठ व्रती भी उतने ही पूज्यनीय है जितनी की छठी मइया और उनके भास्कर भइया। छठ प्रत्यूषा की पूजा है तो ऊषा की भी पूजा है। ये जल की पूजा है तो वायु की भी पूजा है। व्यक्ति के कठोर बनने की प्रक्रिया है। ४ दिनों तक होने वाले तप की पूजा है।  भी है।

उस महान दृश्य की कल्पना कीजिए जब अपने आराध्य भगवान भास्कर को मनुजता साहस दे रही होती है। वो डूबते भास्कर को अर्घ्य देती है। प्रणाम करती है। शक्ति देती है। भास्कर भगवान है। ईश्वर की कल्पना है। सूर्य अपने भक्तों से अपने अस्तगामी पथ पर मिलने वाली इस अतुल्य मानवीय शक्ति को देख कर जरूर भावुक होते होंगे। डूबते सूरज को अर्घ्य देते हजारों लोगों को देख कर सूर्य की ओर देखो तो सूर्य भी शक्तिमानी दिखने लगते हैं। ढलते सूरज भी स्वाभिमानी लगने लगते हैं। ढलती, गुजरती किरणें भी प्रफुल्लित सी चहक उठती हैं। अनवरत बहती नदियां भी इस अदभुत मानवीय शक्ति को निहारती रहती है। कुछ पल के लिए ठहर जाती है और अलौकिक आनंद में सहर्ष रम जाती हैं।

chhath puja

जब सूर्य समाधि में व्यक्ति  स्वयं निर्जल होकर भास्कर को जल समर्पित करता है तो प्रकृति और व्यक्ति के अतुल्य समर्पण के दर्शन होते है। व्यक्ति के प्रकृति को स्वयं से ऊपर रखने के दर्शन के दर्शन होते है। इस दर्शन से यह भरोसा निकलता है कि जब तक छठ है तब तक प्रकृति ही ईश्वर है, सूर्य ही इश्वर है।छठ भारतीय संस्कृति के कृतज्ञता दर्शाने के दर्शन का भी नाम है।

नदियों से मिले जल और सूर्य से मिली किरणों ने हमेशा से मानवता को पाला और पोषा है। बड़ी बड़ी सभ्यताएं और संस्कृतियां नदियों और सूर्य के परस्पर समन्वय से ही विकसित हो पाई है।

जरा सोचिए जब एक साथ हम सभी सूर्य को अर्घ्य देंगे तो कितनी विशाल सामूहिक कृतज्ञता प्रकट होगी। पूरी की पूरी एक सभ्यता और संस्कृति नतमस्तक होगी इन प्राकृतिक स्रोतों के सामने। हम बता रहे होंगे कि आप हैं तो हम हैं। नदियां हैं तो हम हैं। सूर्य हैं तो हम हैं।  इस सामूहिक कृतज्ञता को दर्शाना ही हमारा उत्सव है, पर्व है, त्यौहार है।

नदियों पर आया समाज, सूर्य को अर्घ्य समर्पित करती संस्कृति वहां उन घाटों पर एक सामाजिक संवाद करती भी दिखती है। इतना बड़ा समाज एक जगह एक समय पर एक विषयवस्तु पर एक राय होता है। सब प्रकृति के सामने नतमस्तक होते हैं। अपनी अपनी कृतज्ञता प्रकट कर रहे होते हैं। कौन किस रंग का है, किस जाति का है, किस वर्ण से है और कितना अर्थ लेकर जीवन यापन कर रहा है ये सब सूर्य के सामने निरर्थक हो जाता है।

हमें ज़रूरत है तो छठ जैसे पर्वों को संभालने की, उन्हें अगली पीढि़यों तक पहुंचाने की, लोक मानस के इस महापर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाने की। हमें ज़रूरत है तो छठ में निहित तत्वों के मूल अर्थों को समझने की, उन अर्थों के व्यापक विस्तार की, उस विस्तार को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाने की, स्वीकृत विस्तार को लोक मन में ढालने की, छठ को हमेशा मनाते रहने की, लोक पर्व के माध्यम से सशक्त समाज और जाग्रत राष्ट्र को बनाने की,  छठ के माध्यम से गंगा की संस्कृति को विश्व की सबसे श्रेष्ठ संस्कृति बनाने की।

      डॉ.  जूही  समर्पिता

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