आयुर्वेद बनाम एलोपैथ , जाने आयुर्वेद का इतिहास

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एजेंसी :- आज आयुर्वेद को कम एवं एलोपैथ को अधिक फायदेमंद सिद्ध करने की होड़ लगी हुई है।इस संदर्भ में मैं अपना मत दोनो चिकित्सा पद्ति पर दे रहा हूँ।आयुर्वेद की इतिहास हज़ारों वर्ष पुरानी है जब कि एलोपैथ आधुनिक चिकित्सा है।
आयुर्वेद में बताया गया है कि ब्रहमा जी ने दक्ष प्रजापति को आयुर्वेद का ज्ञान दिया था दक्ष प्रजापति 18575 साल से पूर्व पैदा हुऐ थे । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न धार्मिक विद्वानों ने इसका रचना काल ५,००० से लाखों वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थकार आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। किंतु अर्थववेद स्वयं ही बहुत बाद में या आधुनिक समय मे लिखा गया है। पहले केवल तीन वेद ही थे और अर्थववेद बाद में लिखा गया है इसलिए इसमें आयुर्वेद को भी जोड़ा गया है।
धन्वन्तरि आयुर्वेद के देवता हैं। वे विष्णु के अवतार माने जाते हैं।
धार्मिक मतानुसार इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वन्तरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक।

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आयुर्वेद का अवतरण
चरक मत के अनुसार, आयुर्वेद का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनी कुमारों ने, उनसे इन्द्र ने और इन्द्र से भरद्वाज ने प्राप्त किया। च्यवन ऋषि का कार्यकाल भी अश्विनी कुमारों का समकालीन माना गया है। आयुर्वेद के विकास मे ऋषि च्यवन का अतिमहत्त्वपूर्ण योगदान है। फिर भारद्वाज ने आयुर्वेद के प्रभाव से दीर्घ सुखी और आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया। तदनन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेल, जतू, पाराशर, हारीत और क्षारपाणि नामक छः शिष्यों को आयुर्वेद का उपदेश दिया। इन छः शिष्यों में सबसे अधिक बुद्धिमान अग्निवेश ने सर्वप्रथम एक संहिता का निर्माण किया- अग्निवेश तंत्र का जिसका प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया और उसका नाम चरकसंहिता पड़ा, जो आयुर्वेद का आधार स्तंभ है।
आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान को एलोपैथी (Allopathy) या एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति (Allopathic medicine) कहते हैं। यह नाम होम्योपैथी के जन्मदाता सैमुएल हैनीमेन ने दिया था जिनका यह नाम देने का आशय यह था कि प्रचलित चिकित्सा-पद्धति (अर्थात एलोपैथी) रोग के लक्षण के बजाय अन्य चीज की दवा करता है। (Allo = अन्य तथा pathy = पद्धति, विधि) एलोपैथी दिखने में बहुत रंग बिरंगी अनेक प्रकार के रंग दोषी दिखती हैं यह खाने में अनेक प्रकार का सद्भाव दिखाती है उन्हें बहुत दवाइयां कड़वी भी होती है यह दवाइयां लेने पर अपना असर एक-दो घंटे में ही दिखाना शुरू कर देती है कुछ दवाइयों को लंबे समय तक लेना पड़ता है एलोपैथिक दवाई अपना असर बहुत जल्दी दिखाती है और दवाईयों से हमें कोई भी एलोपैथिक दवाई डॉक्टर की सलाह के बिना नहीं लेनी चाहिए।कभी कभार एलोपैथी के बहुत से साइड इफेक्ट भी देखने को मिले हैं,जो जानलेवा भी सिद्ध हुआ है।
एलोपैथी चिकित्सा के फायदे और नुकसान
स्वास्थ्य से जुड़ी कैसी भी समस्या हो, जब इलाज की बात आती है तो हम तुरंत एलोपैथी इलाज लेते हैं, ताकि इन दवाओं से तुरंत आराम मिल सके। चिकित्सा की इस पद्धति के अगर कुछ फायदे हैं तो कुछ नुकसान भी हैं।
एलोपैथी से लाभ- एलोपैथी चिकित्सा से कुछ लाभ होना निर्विवाद है, जैसे यह मनुष्य को तुरंत राहत दिला देती है। मनुष्य यह चाहता है कि मुझे कष्टों से शीघ्र से शीघ्र राहत मिल सके। एलोपैथी चिकित्सा उसमें सफल रही है। दूसरा निर्विवाद लाभ सफल शल्य चिकित्सा है। एलोपैथी ने शल्य चिकित्सा में वास्तव में आशातीत सफलता प्राप्त की है। पहले तो परंपरागत औजारों द्वारा शल्य चिकित्सा की जाती थी, परंतु विज्ञान के बढ़ते चरणों ने इन औजारों का स्थान विज्ञान की नई तकनीकों को दे दिया है। इसमें लेजर का प्रयोग उल्लेखनीय है। अणु तकनीक ने भी इस चिकित्सा पद्धति में बहुत सहायता की है। अब तो विज्ञान निरंतर इस ओर प्रयत्नशील है कि जहां तक हो, शल्य चिकित्सा में चीर-फाड़ कम से कम करना पड़े।
एलोपैथी चिकित्सा विज्ञान के स्थापित सिद्धांतों पर आधारित है। इसमें नित्य नया प्रयोग होता रहता है, जो इस चिकित्सा पद्धति की ओर ही ले जा रहा है, परंतु इन सबके होते हुए भी इसको अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है। इस पद्धति में ‘इंजेक्शन’ एक ऐसी ही प्रक्रिया है जिसके परिणाम शीघ्र ही सामने आ जाते हैं और इसके द्वारा मनुष्य को तत्काल राहत मिलती है। इस प्रक्रिया से कई कठिन रोगों पर अंकुश लगाने में सहायता मिली है। वैज्ञानिक पद्धति पर चलते हुए इस चि‍कित्सा पद्धति में विभिन्न परीक्षणों का विशेष महत्व है। यदि परीक्षणों में रोग के लक्षण नहीं आते, तो डॉक्टर यह मानकर चलता है कि रोगी को कोई रोग नहीं हैं, परंतु वास्तविकता यह नहीं होती। परीक्षणों में कहीं-न-कहीं कुछ कमियां रह ही जाती हैं जिनके लिए वे और परीक्षण करना चाहते हैं। नए-नए यंत्र निकाले जा रहे हैं, नई-नई तकनीक विकसित की जा रही है जिससे कि परीक्षण पूर्ण हो सके, परंतु यह कितना सफल हुआ, यह तो भविष्य ही बता पाएगा।
एलोपैथी से हानियां – एलोपैथी से लाभ तो जो हैं, वे प्रत्यक्ष ही हैं, पर इस पद्धति में जो सबसे बड़ा दोष है, वह है दवाइयों का प्रतिकूल प्रभाव (साइड इफेक्ट)। एक तो दवाइयां रोग को दबा देती हैं, इससे रोग निर्मूल नहीं हो पाता, साथ ही वह किसी अन्य रोग को जन्म भी दे देता है। यह इस पैथी के मौलिक सिद्धांत की ही न्यूनता है। दूसरी बात है कि अधिकतर रोग डॉक्टरों के अनुसार असाध्य ही हैं, जैसे हृदयरोग, कैंसर, एड्स, दमा, मधुमेह आदि। यहां त‍क कि साधारण से लगने वाले रोग जुकाम का भी एलोपैथी में कोई उपचार नहीं।
पेट से संबंधित जितने भी रोग हैं, वे तो अधिक डॉक्टरों के समझ में कम ही आते हैं। उदर रोगों का परीक्षण भी कठिन होता है तथा उसके सकारात्मक परिणाम भी नहीं मिल पाते। उदर रोगों का जितना सटीक एवं सफल उपचार आयुर्वेद में है, उतना और दूसरी चिकित्सा पद्धति में देखने में नहीं आता।
अधिकतर रोग उदर से प्रारंभ होते हैं अत: यदि वहां पर ही अंकुश लगाया जा सके तो कई रोगों का निदान स्वत: हो सकता है। मनुष्य अधिकतर स्वस्थ और निरोग रह सकता है। डॉक्टरों के पास एक ही अस्त्र है कि वे एंटीबायोटिक दवाई देते हैं, जो लाभ कम और हानि अधिक करती है। इन दवाइयों का उदर पर सीधा दुष्प्रभाव पड़ता है और व्यक्ति की पाचन क्रिया उलट-पुलट हो जाती है। यदि वह उस दवाई को शीघ्र ही बंद न कर दे तो दूसरी व्याधियां उग्र रूप ले लेती हैं।
एलोपैथी में यह भी देखने में आया है कि कई रोग ऐसे हैं जिनका कोई कारण डॉक्टरों की समझ में नहीं आता। वे उसका नाम ‘एलर्जी’ दे देते हैं। इसका उनके पास कोई उपचार नहीं है। डॉक्टर लोग इस ‘एलर्जी’ के उपचार के विषय में सतत प्रयत्नशील हैं, परंतु अभी तक उन्हें विशेष सफलता नहीं मिल पाई है। इस कथित रोग के विशेषज्ञ भी हो गए हैं, परंतु परिणाम कोई विशेष नहीं मिल पाया है।
यह कहा जा सकता है कि एलोपैथिक चिकित्सा से लाभ सीमित हैं, परंतु इससे हानियां अधिक हैं। अमेरिका के लोग अब आयुर्वेद की ओर विशेष आकर्षित हो रहे हैं। वहां उस विषय में अनुसंधान भी तेजी से किए जा रहे हैं, इसके उदाहरण हैं कि कुछ आयुर्वेदिक औषधियां अमेरिका से भारत आ रही हैं और वे सफलतापूर्वक प्रयोग में लाई जा रही हैं।

यह तथ्‍य तो सही है कि एलोपैथिक चिकित्सा वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरी है इसलिए इसका प्रचार-प्रसार भी अधिक हो सका, परंतु मेरे विचार से यह चिकित्सा पद्धति अपने आप में पूर्ण नहीं है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति अपने आप में पूर्ण है, परंतु इसका अधिक प्रचार नहीं हो पाया। इसमें हमारी मानसिकता विदेशी पद्धति श्रेष्ठ है, भी एक मुख्य हेतु है। आयुर्वेदिक चिकित्सा में विश्वास बढ़ाना हम सबका कर्तव्य होना चाहिए; क्योंकि यह श्रेष्ठ, सफल एवं पूर्ण चिकित्सा पद्धति है।

अधिकतर रोग उदर से प्रारंभ होते हैं अत: यदि वहां पर ही अंकुश लगाया जा सके तो कई रोगों का निदान स्वत: हो सकता है। मनुष्य अधिकतर स्वस्थ और निरोग रह सकता है। डॉक्टरों के पास एक ही अस्त्र है कि वे एंटीबायोटिक दवाई देते हैं, जो लाभ कम और हानि अधिक करती है। इन दवाइयों का उदर पर सीधा दुष्प्रभाव पड़ता है और व्यक्ति की पाचन क्रिया उलट-पुलट हो जाती है। यदि वह उस दवाई को शीघ्र ही बंद न कर दे तो दूसरी व्याधियां उग्र रूप ले लेती हैं।

इस चिकित्सा पद्धति में औषधि से अधिक शल्य चिकित्सा सफल हो पाई है। यहां तक कि जिन रोगों का आयुर्वेद अथवा यूनानी या होम्योपैथिक चिकित्सा में औषधियों से उपचार हो जाता है, वहां भी एलोपैथी शल्य चिकित्सा का सहारा लेती है। दूसरे शब्दों में यह पद्धति शल्य चिकित्सा पर अधिक आधारित होती जा रही है। इससे यह चिकित्सा अन्य चिकित्सा पद्धतियों से महंगी भी होती जा रही है और साधारण व्यक्ति की पहुंच से बाहर होती जा रही है।

एलोपैथी में यह भी देखने में आया है कि कई रोग ऐसे हैं जिनका कोई कारण डॉक्टरों की समझ में नहीं आता। वे उसका नाम ‘एलर्जी’ दे देते हैं। इसका उनके पास कोई उपचार नहीं है। डॉक्टर लोग इस ‘एलर्जी’ के उपचार के विषय में सतत प्रयत्नशील हैं, परंतु अभी तक उन्हें विशेष सफलता नहीं मिल पाई है। इस कथित रोग के विशेषज्ञ भी हो गए हैं, परंतु परिणाम कोई विशेष नहीं मिल पाया है।

यह कहा जा सकता है कि एलोपैथिक चिकित्सा से लाभ सीमित हैं, परंतु इससे हानियां अधिक हैं। इसलिए आज संसार के जिन देशों में केवल इसी चिकित्सा प‍द्धति का अनुसरण हो रहा है, वे भी दूसरी चिकित्सा पद्धतियों की ओर आ‍कर्षित हो रहे हैं। यूरोप के कुछ देश होम्योपैथिक अथवा प्राकृतिक चिकित्सा की ओर आकर्षित हो रहे हैं, जबकि अमेरिका के लोग अब आयुर्वेद की ओर विशेष आकर्षित हो रहे हैं। वहां उस विषय में अनुसंधान भी तेजी से किए जा रहे हैं, इसके उदाहरण हैं कि कुछ आयुर्वेदिक औषधियां अमेरिका से भारत आ रही हैं और वे सफलतापूर्वक प्रयोग में लाई जा रही हैं।

यह तथ्‍य तो सही है कि एलोपैथिक चिकित्सा वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरी है इसलिए इसका प्रचार-प्रसार भी अधिक हो सका, परंतु मेरे विचार से यह चिकित्सा पद्धति अपने आप में पूर्ण नहीं है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति अपने आप में पूर्ण है, परंतु इसका अधिक प्रचार नहीं हो पाया। इसमें हमारी मानसिकता विदेशी पद्धति श्रेष्ठ है, भी एक मुख्य हेतु है। आयुर्वेदिक चिकित्सा में विश्वास बढ़ाना हम सबका कर्तव्य होना चाहिए; क्योंकि यह श्रेष्ठ, सफल एवं पूर्ण चिकित्सा पद्धति है।

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