कहाँ से करूँ मैं प्यार शुरु ?
आइए, सबसे पहले उसे पढ़ लेते हैं जो संत वेलेंटाइन के वोटर आइ. डी. कार्ड पर टंकित है । सर वेलेंटाइन इटली में जन्में । वे ईसाई पादरी थे । उन दिनों क्लाउडियस द्वितीय रोम के राजा हुआ करते थे जिन्होंने अपने सेनापति समेत तमाम सैनिक को शादी न करने की मुगलिया ताक़ीद दे रखी थी । यह मुगलिया फरमान सर वेलेंटाइन के पादरी वाले पेशे पर सीधा हमला था । सवाल यह भी खड़ा हुआ कि सैनिक खाली समय में क्या करे । लूडो वे खेल सकते नहीं । राजा ने जीवन के कीमती पैकेट पर वैधानिक चेतावनी लिख रखी थी – “शादी करना सेहत के लिए खतरनाक है” । सभ्यता के इतिहास में प्यार पर संभवतः सत्ता की यह पहली पहरेदारी थी । इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि सर वैलेंटाईन साहसिक कारनामों के लिए जाने जाते थे । अभी हाल तक उनका नाम गिनीज बुक में दर्ज था । फिर भारत में नोटबंदी हुई और ‘वेलेन’ साहब का नाम वहां से हटा दिया गया । खैर, वेलेन साहब ने राज्यादेश की मुख़ालफ़त अपने ढंग से की । उन्होंने छुप-छुपाकर हजारों सैनिकों की शादी कराई । इस राजविरोधी उपक्रम से ‘क्लाउडियस द्वितीय’ कुपित हुए । सर वेलेंटाइन पर देशद्रोह का मुकदमा चला और बेंच द्वारा वेलेंटाइन साहब को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई ।
बहरहाल, सवाल यह बनता है कि सर वेलेंटाइन ‘संत वेलेंटाइन’ कैसे बने ? इसाईयत कहता है संत वो जो चमत्कार कर दिखाये । ऐसा चमत्कार जिससे मानवता पोषित हो । कहते हैं मरने से पहले वेलेंटाइन साहब ने सजा सुनाने वाले जज की अंधी बेटी के माथे पर हाथ फेरा और उसकी आँखों की ज्योति वापस आ गई । फिर क्या ! उसी दिन से पादरी वेलेंटाइन संत वेलेंटाइन बन गए । कारनामे की ख़बर पूरे गोले में फैली । फिर जो होता आया है, हुआ । उनके मरने के कुछ वर्षों बाद यानि 14 फरवरी 496 ई. से संत वेलेंटाइन डे उत्सवित होने लगा । कालांतर में यह दिन प्रेमोपासना के नाम हो गया ।
आगे बढ़ने से पहले सुधी पाठकों को ‘वेलेंटाइन डे’ की शुभकामनायें ।
एक ज़माना था जब हम करते थे प्रेम और सामाजिक बंदिशों से उपजे झिझक की वजह से इसे अनाप-शनाप नामों से पुकारते थे । बादल, बिजली, चंदन, पानी सब इस एक ‘प्यार’ के पर्यायवाची हुआ करते थे । वो समय नहीं रहा । सुधा और चंदर जैसे औपन्यासिक पात्रों का ज़माना गया जब प्यार के गुल नैतिकताओं और आदर्शों की बगिया में खिलते थे । आज साहस के बादल ने संकोच के सूरज को अपदस्थ कर दिया है । आज की लैला अपने मजनूं के प्रति अपनी मधुर भावना का इज़हार अपने सहज सपाट बयानों से कर देती है ।
आज प्यार वो टॉय ट्रेन है जो ‘चुम्बन’ और ‘आलिंगन’ नामक दो स्टेशनों के बीच सरपट दौड़ रही है । ईंजन प्रस्ताव का, ईंधन वादों का । विकास का पहिया इन वर्षों में इतनी तेजी से घूमा कि पर्दे का प्यार परवान चढ़ता गया और सिनेमाई नुमाईश सड़कों, पार्कों, मॉलों, मंदिरों समेत अन्य सार्वजनिक स्थलों पर पहुँच गयी ।
आज की पीढ़ी जानती है कि “बीइंग इन लव इज मोर इम्पार्टेंट दैन नोइंग लव” । एंथनी साहब कहा करते थे – ‘बेटा, रियल लव डाइज अनटोल्ड’ । आज वो याद आते हैं तो मन करता है कि जूते के लेस ढीले कर लूं ।
संत, आज जिसकी जादू की झप्पी से वशीभूत होकर कई युवक अपने जीवन को प्रेममय बना रहे हैं । युवतियां सपनों का श्रृंगार कर रही है । आज बच्चे दुर्योधन का मेवा त्याग विदुर संग साग खा रहे हैं । निबंधन कार्यालय में बैठा रजिस्ट्रार ही आज का पंडित, काज़ी और पादरी है । बाबुल प्यारे ….. , चलो रे डोली उठाओ …. जैसे मनहूस गीत आज बजने अब बंद हो गए है । वर वधू पक्ष में होने वाले विवाहपूर्व गल्प और ढकोसलेबाजी के बूढ़े बरगद के जड़ पर मानो इस संत ने मट्ठा डाल दिया हो । नतीजतन, अभिभावक घर बैठे नाखून चबा रहे हैं और बच्चे …
उभरता हुआ भारत ऐसे संत का ऋणी है ।
देशवासियों को समय-समय पर अपने मन की बात बताने वाले माननीय प्रधानमंत्री जी से मेरा अनुरोध है कि वे हर वर्ष 14 फरवरी को प्रेमी युगलों से मुखातिब हों । गुजारिश रहेगी कि प्रेमी-युगलों के हितार्थ सदन में एक विधेयक लाया जाय – “हीर-रांझा सुरक्षा विधेयक” । “टेडी बीयर मैन्युफैक्चरिंग हब” के रूप में भारत की पहचान बने तो क्या बुरा है ! हर जिला मुख्यालय में एक “हग कॉर्नर” और एक “किसिंग प्लाज़ा” खोलकर सरकार युवा भारत के निर्माण को लेकर अपनी वचनबद्धता को साबित कर सकती है ।
पैसे से क्या रॉफेल और रेकसोना खरीदते रहना है ?
आज दिन-विशेष को लेकर कृष्ण-अनुरागियों के अपने वादे हैं और शिव-साधकों के अपने तर्क । इन वादों और तर्कों के बीच बाजार बीते सात दिनों से गुलजार है । और बाजार बता रहा है कि सप्ताह भर चॉकलेट, टेडी, रोज ही नहीं खरीदे गए । लाठियाँ और गमछे भी खरीदे गए ।
चलो मान लिया कि ई सब विदेशी खेल ड्रामा है । लेकिन साहिब, क्रिकेट भी तो बाहरी खेल था । ‘मैकबेथ’ भी तो बाहरी ड्रामा था । एडिडास और रीबॉक अपना है क्या ? कभी समय मिले तो अतिबौद्धिकता का शिकार हुए बगैर सोचिएगा कि हमारी पिचों पर क्रिकेट क्यों फला-फूला ?
और हमारे रंगालयों में मैकबेथ क्यों खेला जाने लगा ?
© संतोष सिंह (साहित्यकार)