“सिधू कान्हू” – वीरता की मूर्ति
Desk (safiya) : सिधू मुर्मू का जन्म 1815 में झारखंड राज्य के संथाल परगना मे साहेबगंज जिले के बरहेट ब्लॉक एक गाँव भोगनाडीह में हुआ था। उनके छोटे भाई कान्हू मुर्मू का जन्म 1820 में हुआ था। सिधू कान्हू के छह भाई-बहन थे, जिनमें चाँद और भैरव शामिल थे, जिनका जन्म 1825 और 1835 में हुआ था, और दो बहनें थीं जिनका नाम फूलों मुर्मू और झानो मुर्मू था। सिद्धु कान्हू के पिता चुन्नी मांझी थे, जो आंदोलन के दौरान शहीद हो गये थे, सिद्धू की पत्नी का नाम सुमी मुर्मू था।
1857 की क्रांति लगभग पूरे भारत में देखी गई और झारखंड भी इसका अपवाद नहीं था। संथाल विद्रोह वर्ष 1857 में अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में शुरू हुआ। सिधू-कान्हू ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन शुरू किया, जो झारखंड में 1857 के विद्रोह का प्रमुख हिस्सा बना। 1857 की लड़ाई में झारखंड में अंग्रेजों के खिलाफ निडर होकर लड़ने में सिद्धु कान्हू और उनके भाई चांद और भैरव ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। झारखंड के लिए और अंग्रेजों को झारखंड से खदेड़ने के लिए कई क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी।
अंग्रेजो का आदिवासियों पर शोषण का दायरा दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था, जिससे आदिवासियों में अंग्रेज़ों के लिये नफरत था। लेकिन वे कुछ भी करने में असमर्थ थे, क्योंकि उनके पास कोई हथियार, संगठन या समर्थन नहीं था। सिधू कान्हू ने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई और अपने भाइयों और परिवार को समझाया कि क्या सही है और क्या गलत है और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ कैसे लड़ना चाहिए। उन्होंने एक संगठन बनाया, लोगों को जागरूक किया और उन्हें अंग्रेजों और साहूकारों के खिलाफ भड़काया। संथाल परगना के लोग बढ़ते अत्याचारों और शोषण से त्रस्त थे और लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा इस क्षेत्र में अस्थायी बंदोबस्त लागू करने के कारण एक नए जमींदार वर्ग का गठन हो गया, जिससे शोषण और भी अधिक बढ़ गया। इन सभी कारणों से परेशान होकर संथाल विद्रोह या हूल आंदोलन शुरू हुआ। सिधु मुर्मू और उनके भाई भैरव ने संथाल लोगों को इकट्ठा करने की योजना बनाई। उन्होंने अतार्थ शॉल के पत्तों की शाखाएँ घर-घर भेजकर यह संदेश देना शुरू कर दिया कि अब अबुआ राज स्थापित करने का समय आ गया है। 30 जून 1855 आधी रात को लगभग 400 गाँवों की भीड़, जिसमें लगभग 50,000 संथाल लोग शामिल थे, भोगनाडीह में एकत्र हुए।
संथाल विद्रोह के डर से अंग्रेजों ने पाकुड़ में मार्टिलन टावर का निर्माण कराया था। विद्रोह के नेता सिधू कान्हू को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने बहुत सख्त कदम उठाए। जब अंग्रेजों को लगा कि दोनों भाई भोगनाडीह में अपने घर में हैं तो उन्होंने भोगनाडीह पर धावा बोल दिया और उस घर में आग लगा दी। उस घर में सिधू कान्हू तो नहीं थे, लेकिन उनके पिता चुन्नी मांझी की मृत्यु उस घर में हो गयी थी।
हूल यात्रा शुरू हो गई, जो कलकत्ता की ओर जा रही थी और इसके साथ ही गाँवों को लूटा जा रहा था, जलाया जा रहा था और लोगों को मारा जा रहा था। संथालों ने वीरभूमि क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और अंग्रेजों को वहां से खदेड़ दिया। वीरपैती में ब्रिटिश सेना पराजित हो गई। संथालों की सबसे बड़ी जीत रघुनाथपुर और संग्रामपुर की लड़ाई में थी, जिसमें एक यूरोपीय सेनापति, कुछ स्वदेशी अधिकारी और लगभग 25 सैनिक मारे गए थे।
बढ़ैत की लड़ाई 1855-1856 के संथाल विद्रोह में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसका नेतृत्व दो संथाल भाई सिद्धू और कान्हू ने किया था, जिन्होंने भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। लड़ाई के दौरान चाँद और भैरव अंग्रेज़ों की गोलियों से मारे गये और सिधू कान्हू के साथी जो इनाम के लालची थे, अंग्रेज़ों की सेना में शामिल हो गये। उनकी मदद से कान्हू को उपरबंदा गांव के पास से गिरफ्तार कर लिया गया और सिधू को 19 अगस्त 1855 को बरहेट में गिरफ्तार कर लिया गया। मेहर शकवर्ग ने उन्हें कैद कर लिया और भागलपुर जेल ले गये। गिरफ्तारी के बाद दोनों भाइयों को सार्वजनिक रूप से फाँसी दे दी गई। सिद्धू को बरहेट के पंचकठिया नामक स्थान पर फाँसी दी गई, जिसे शहीद स्थल भी कहा जाता है। कान्हू को उसके गांव भोगनाडीह में फांसी दी गयी भाइयों की मृत्यु से संथाल विद्रोह का अंत हो गया। 30 नवंबर 1856 को संथाल परगना को एक जिला घोषित किया गया और एशले ईडन को इसका पहला कलेक्टर नियुक्त किया गया। जिले में देश के बाकी हिस्सों से अलग एक अनोखी कानूनी व्यवस्था थी।
विद्रोह की समाप्ति के बावजूद, 1857 में सिपाही विद्रोह, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में भी जाना जाता है, ने आगे की घटनाओं के लिए मंच तैयार किया। संथाली गीतों में आज भी सिधू कान्हू को याद किया जाता है और उनकी शहादत को संथाल हूल दिवस पर याद किया जाता है, जो हर साल 30 जून को मनाया जाता है। सिधू और कान्हू के नेतृत्व में हुआ विद्रोह आज भी संथाल विद्रोह के नाम से जाना जाता है और उनकी विरासत पूरे संथाल परगना और झारखंड क्षेत्र के लिए गर्व का स्रोत है।