जमशेदपुर: ‘सृजन संवाद’ की 150वीं संगोष्ठी में गूंजा स्वर – “युद्ध के विरुद्ध: साहित्य का हस्तक्षेप”

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जमशेदपुर – देश एवं विश्व के हालात को देखते हुए साहित्य, सिनेमा एवं कला संस्था ‘सृजन संवाद’ ने 150वीं संगोष्ठी स्ट्रीमयार्ड तथा फ़ेसबुक लाइव पर विशिष्ट शृंखला ‘युद्ध के विरुद्ध’ की पहली कड़ी 18 मई 2025, सायं 7 बजे आयोजित की। करीब ड़ेढ़ घंटे चली इस गोष्ठी में तीन वक्ताओं ने दो चक्र में ‘युद्ध के विरुद्ध: साहित्य का हस्तक्षेप’ विषय पर अपनी बात रखी। बड़ौदा से कहानीकार ओमा शर्मा, मुंबई से कवि विजय कुमार एवं वर्द्धा से साहित्य-सिनेमा विशेषज्ञ अमरेंद्र शर्मा ने संचालक करीम सिटी की डॉ. नेहा तिवारी के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कार्यक्रम को सार्थक बनाया। डॉ. विजय शर्मा ने स्वागत किया।

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डॉ. विजय शर्मा ने कहा, ‘युद्ध के विरुद्ध: साहित्य के हस्तक्षेप’ की बात सोचते हुए सबसे नोबेल पुरस्कृत लुई पिरांडले की मार्मिक कहानी ‘युद्ध’ की याद आती है। थोरो ने ‘द बैटल ऑफ़ दि एंट्स’ के अंत में मानवता को संबोधित करते हुए बड़ी महत्वपूर्ण बात कही है। यूरोप में युद्ध संबंधित प्रचुर साहित्य प्राप्त होता है। उन्होंने मंच पर उपस्थित विद्वानों तथा फ़ेसबुक लाइव श्रोताओं/दर्शकों का स्वागत किया।

डॉ. नेहा तिवारी ने विषय की भूमिका बाँधते हुए बताया कि प्रथम युद्ध से जुड़ी कविताओं में शौर्य, वीरता का बखान है। उन्होंने विजय कुमार को युद्ध की परिभाषा स्पष्ट करने हेतु आमंत्रित किया। वक्ता ने कहा, कहाँ तो हम ग्लोबल विलेज, सीमाओं के विलय की कल्पना कर रहे थे, और आज हर सीमा असुरक्षित है, हर देश किसी-न-किसी तरह के युद्ध से जूझ रहा है। दिमागी दिवालियापन छाया हुआ है, तरह-तरह के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष युद्ध चल रहे हैं। तमाम तरह की शक्तियाँ युद्ध के साथ हैं, इसके कई स्तर हैं। सलमान रुश्दी के माध्यम से ओमा शर्मा ने कहा, साहित्य युद्ध को रोक भले न सके मगर उसकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने टॉल्सटॉय आदि कई साहित्यकारों का उल्लेख कर कहा, कक्षा में देशभक्ति एवं शौर्य की बातें मोर्चे पर लड़ाई से बहुत बेमेल हैं। साहित्य हमें संवेदनशील बनाता है। साहित्य में कई तरह के युद्ध का उल्लेख प्रारंभ से मिलता है, अमरेंद्र कुमार शर्मा ने इस बात को वैदिक, संस्कृत, हिन्दी एवं विदेशी साहित्य के उदाहरण से बताया। उन्होंने भवभूति, प्रसाद, काफ़्का के साहित्य की बात करते हुए ‘डेथ विश’, युद्ध के आमजन, खासकर स्त्रियों पर प्रभाव को इंगित किया। हिन्दी में गरिमा श्रीवास्तव का काम इसका उदाहरण है। आमजन युद्ध में रूचि न ले पर युद्ध आमजन में रूचि रखता है, वह संस्कृति पर आक्रमण कर उसे छिन्न-भिन्न करता है। युद्ध का संदर्भ हिन्दी गद्य से अधिक हिन्दी पद्य में मिलता है।

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समय कम था, तैयारी के साथ आए वक्ताओं के पास कहने हेतु बहुत था। साहित्य का स्वरूप बदला है, मगर वह वैश्विक चिंता करता है। युद्ध विषयक साहित्य को कई श्रेणियों में बाँटा जाता है। भले युद्ध व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से प्रारंभ हो, यह बाह्य एवं आंतरिक दोनों होता है। इस महत्वपूर्ण चर्चा का निष्कर्ष रहा कि साहित्य का काम हमें जागरुक करना है, संवेदनशील बनाना है।

डॉ. अंशु तिवारी ने महत्वपूर्ण-सार्थक वक्तव्यों का सार प्रस्तुत करते हुए धन्यवाद ज्ञापन किया। ‘सृजन संवाद’ की अगली कड़ी में युद्ध संदर्भित कविताओं का पाठ होगा। 150वें सृजन संवाद कार्यक्रम में, पुणे से सिने-इतिहासकार मनमोहन चड्ढा, दिल्ली से प्रो. रेखा सेठी, प्रो. इला भूषण, प्रो. रक्षा गीता, जमशेदपुर से डॉ. मीनू रावत, डॉ. क्षमा त्रिपाठी, गीता दूबे, ऋचा द्विवेदी, अरविंद तिवारी, वीणा कुमारी, गुजरात से रानु मुखर्जी, बैंग्लोर से शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा, पत्रकार अनघा मारीषा, कोलकाता से साहित्यकार मधु कांकरिया, डॉ. चन्दा राव, सुनिल सक्सेना, राँची से कहानीकार रश्मि शर्मा, यायावरी वाया भोजपुरी के वैभव मणि त्रिपाठी आदि जुड़े। ‘हमें तो मानवता का इतिहास भी युद्ध के संदर्भ में पढ़ाया जाता है।’ वैभव मणि त्रिपाठी ने टिप्पणी की। टिप्पणियों से कार्यक्रम अधिक सफ़ल हुआ।

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