गज़ल
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यहां हर कोई……..किसी से तंग है ।
चेहरा पुता है…..भीतर से बदरंग है ।।
सबकी अपनी रोटी…अपनी थाली
फिर भी चौतरफा अघोषित जंग है ।।
घड़ी की सुइयों सा बदलते हैं लोग
यह सब देख…..गिरगिट भी दंग है ।।
मतभेद रखिए….मगर मनभेद क्यूं
यह शरीर तो चंद सांसों का संग है ।।
औरों की खबर पे जो जीभ हिलाए
मेरी नजर में……वह एक भुजंग है ।।
जहां मिलती है….पुरखुलूस सुकून
वह और कुछ नहीं…मां की छंग है ।।
फकत डिग्रियों से कुछ नहीं होता
विनम्रता ही ज्ञान का असली कंग है ।।
राग की जगह जो रार पाले “वंदन”
यकीनन…..वह मानसिक अपंग है ।।
कंग : आवरण, छंग : गोद, भुजंग : सांप
© मनीष सिंह “वंदन”
आई टाइप, आदित्यपुर, जमशेदपुर, झारखंड
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