बाबूजी
अमावस की काली रात में
बीजलियों की गड़गड़ाहट के बीच
सुनसान पगडंडियों से गुजरते हुए
विचरने लगता हूँ बाबूजी की स्मृतियों में
हुआ-हुआ करते सियारों का काफ़िला
हवाओं का बदल जाना तूफान में
झींगूरों की झनझनाहट
और बुढ़वा पीपल का जोर-जोर से हिलना
‘आजी’ की संभावनाओं को
दे रहा था साकार रुप
कि बड़का प्रेत बच्चों को देखकर अकेला
झपट पड़ता है, पी जाता है देह का सारा खून
तोड़ देता है मरोड़ कर गर्दन
फाड़कर छाती निकाल लेता है कलेजा
पसीने से तर-बतर जीस्म,सहमी आँखें
कांपते पैरों का गतिशील हो जाना
कि अगले मोड़ पर भाग जाएगा यह प्रेत
मिलते ही बाबूजी का कंधा
आज भी आता है वह प्रेत
पूर्णिमा की चाँद के साथ
छिटकी चाँदनी के बीच
निचोड़ता है देह से बूँद -बूँद खून
करते हुए अट्टहास
उम्मीद भरी आँखों से निहारते हुए दिक्पालों को
जोर -जोर से पढ़ता हूँ हनुमान चालीसा
पढ़ जाता हूँ न जाने कितने ही मंत्र
चिखता हूँ, चिल्लाता हूँ
सूखे पत्ते की तरह होकर निढा़ल गीर जाता हूँ
जैसे गीर जाता है अजन्मा बच्चा
माँ के गर्भ से
होकर शिकार कुपोषण का
समझ नहीं पाया अबतक
डराता है मुझे प्रेत कि
ढूँढ़ता हूँ बाबूजी का कंधा
हर बार टूटने के बाद।
कवि – वरुण प्रभात