अर्जित लोकतंत्र में नागरिक-बोध :- श्यामल सुमन
अनगिनत बलिदानों और त्याग-तपस्या से अर्जित आज हमारा लोकतंत्र कहां खड़ा है? यह गम्भीर चिन्ता और चिन्तन का विषय है। आखिर समाज के हर तबके के इतने बड़े बड़े विद्वानों और अनुभवी लोगों द्वारा तैयार हमारे संविधान की मूल भावना को कानूनी दांव-पेंच की आड़ में बार बार क्यों घायल होना पड़ता है? क्या लोकतंत्र को अप्रासंगिक बनाने का कोई षड्यंत्र तो नहीं चलाया जा रहा है?
हमारे संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र के संरक्षण के लिए इसके अनेक अंगों को संविधान में स्वायत्तता प्रदान की है ताकि हर इकाई स्वतंत्र होकर देश / समाज हित में निर्णय ले सके। यदि कहीं से कोई गड़बड़ी की शिकायत मिलती है तो हमारी स्वतंत्र न्यायपालिका उस पर संविधान सम्मत फैसला सुनाती है जिसके अनुपालन करने / करवाने की जिम्मेवारी तत्कालीन कार्यपालिका की होती है।
इन सबसे हटकर हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता (आज की भाषा में मीडिया) भी है जो लोकतंत्र के हर अंगों की निष्पक्ष पहरेदारी करते हुए सच को सामने लाता है ताकि लोकतंत्र सही मायने में स्वस्थ और जीवंत रह सके।
लेकिन क्या आज यह आदर्श स्थिति है अपने देश में? क्या आज हमारा लोकतंत्र वही है जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी? हम सबको बिना किसी दल के पिछलग्गू बने, एक नागरिक की हैसियत से अपने आप से यह सवाल शिद्दत से पूछना चाहिए। क्या हम सबका “नागरिक-बोध” दिन प्रतिदिन भोथरा होते जा रहा है? नहीं तो हमारे द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधि अपने अपने हित के लिए जनहित को खुलेआम रौंद कैसे रहे हैं?
क्या हमारे देश में संवैधानिक संस्थाओं और संवैधानिक पदों की स्वायत्तता बची है? क्या न्यायिक प्रक्रिया में सब ठीक ठाक है? क्या मीडिया अपने दायित्वों को निष्पक्षता से निर्वहन कर रही है? आखिर ऐसी दुर्दशा कैसे हुई हमारे पूर्वजों द्वारा अर्जित लोकतंत्र की?
तुलसी बाबा कहते हैं कि – कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करइ सो तस फल चाखा। और न्यूटन के गति का तीसरा नियम है कि – “प्रत्येक क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है” (Every action has its equal and opposite reaction)।
सच पूछिए तो इस तरह की सारी बातों का एक ही संदेश है। आज जो भी स्थिति है उसका बीजारोपण दशकों पहले की चुनी हुई सरकारों ने अपने अपने कार्यकाल में अपने अपने स्वार्थ के लिए अपने अपने तरीके से किया। चाहे संवैधानिक संस्थाओं / संवैधानिक पदों के दुरुपयोग का मामला हो या न्यायिक प्रक्रिया पर अंकुश का मामला हो या फिर मीडिया पर नियंत्रण करने का। यही तीनों लोकतंत्र की आत्मा है और इसे दूषित करने का पाप पूर्ववर्ती सरकारों ने भी किया।
फिर सरकारें आतीं गयीं और इन स्वतंत्र निकायों की आत्मा को अपने अपने ढंग से यत्र तत्र कुचलते रही बिना यह सोचे कि जो काम आज वो कर रहे हैं कल वही नजीर बनकर उन्हीं लोगों के खिलाफ भी इस्तेमाल हो सकता है क्योंकि यह लोकतंत्र है जहां सरकारें बदलतीं रहतीं हैं। और आज यही हो भी रहा है और वो बीज अंकुरित होकर, पौधा बनते हुए अब विशाल विषवृक्ष बनने को आतुर है।
आज जो राजनैतिक दल सरकारी क्रिया कलापों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं वो शायद अपने इतिहास को याद नहीं कर रहे हैं कि लोकतंत्र की मूल भावना के प्रति इन दुष्कर्मों की शुरुआत उन्हीं के दल के लोगों द्वारा की गई थीं। वर्तमान सरकारी महकमा को भी यह समझने की जरूरत है कि कल जब अभी के विपक्षी सत्तासीन होंगे तो यही सब बातें उनके खिलाफ जाएंगी। आखिर अंत कहां होगा? क्या लोकतंत्रीय व्यवस्था का पतन इसी तरह होता रहेगा? और हम देखते रहेंगे? कथमपि नहीं।
मानव सभ्यता के विकास-यात्रा के क्रम में अबतक ज्ञात तमाम शासन पद्धतियों में लोकतंत्र सर्वोपरि है। पूरी दुनिया में यह किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का दुर्भाग्य माना जाता है जब आमलोग न्यायिक प्रक्रिया और मीडिया को शक की दृष्टि से देखने लगे क्योंकि तुलसी बाबा कह गए हैं कि – सचिव वैद गुरु तीन जौं प्रिय बोलहिं भय आस। राज धर्म तन तीन कर होहिं बेगहिं नास।।
जब न्याय प्रणाली और मीडिया अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन नहीं करता तो यह जिम्मेवारी स्वतः आम जनता के कंधे पर आ जाती है और जनता जनार्दन राजनैतिक दलों को सबक देते हुए सब ठीक कर देती है। लेकिन इसके लिए भी आमजनों को अपने अपने अन्दर अपने नागरिक-बोध को हमेशा जागरूक रखना होता है।
तो आईए मित्रों! बिना किसी दल का पिछलग्गू बने अपने अपने नागरिक होने के बोध को जाग्रत करें और देशभक्तों के बलिदान और त्याग-तपस्या से अर्जित इस लोकतंत्र को लोक-कल्याणकारी बनाने में अपना अपना योगदान दें ताकि यह सुन्दर देश और सुन्दर बने।
—!! जय हिन्द !!—