बचपन से ही असमानता, अस्पृश्यता तथा छुआछुत के लिए अपनी आवाज़ बुलंद कर लिया था, अंबेडकर ने
14 अप्रैल को भारत के पहले कानून मंत्री डॉ. भीमराव आंबेडकर के जन्मदिवस पर विशेष आलेख
विशेष (सोमा प्रभाकर): भारत परंपराओं के लिए जाना जाता है। परंपराएँ चाहे जैसी हों उनका निभाया जाना महत्त्वपूर्ण है यही मानकर लोग भी चुपचाप उन्हें अपना लेते हैं एवं परंपराओं से जुड़े विधि-विधानों को अपने जीवन का हिस्सा बना लेते हैं। इसके बावजूद कोई एक शख़्स इन परंपराओं की वैधता को परखता है और इसके लिए वह न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, तात्कालिक महत्व और नियमों की प्रासंगिकता जैसे विचारों को मानदंडों के रूप में उपयोग करता है। इस पूरी प्रक्रिया में यदि उस व्यक्ति द्वारा कुछ भी ऐसा पाया जाता है जो लोकहित में अस्वीकार्य है तो वह तुरंत ही इन परंपराओं के विरूद्ध अपने स्वर बुलंद करने लगता है। वह व्यक्ति समाज के लिए समाज के विरूद्ध चला जाता है और इसी कारण विद्रोही कहलाता है। यातनाएँ सहता है, अपमानित किया जाता है परंतु वह फिर भी डटा रहता है। अपने हठधर्म में बना रहता है। अपने दिये के तेल को सूखने नहीं देता, अपनी मशाल को बुझने नहीं देता और एक दिन रूढ़िवादिता के सारे बंधनों को तोड़ते हुए शोषितों और वंचित तबको का सबसे बड़ा मसीहा बन जाता है, पूरे विश्व के लिए एक उदाहरण बनकर सामने आता है। यही सार है, डाॅ. भीमराव अंबेडकर के पूरे जीवन संघर्ष का। यह परिचय है उस व्यक्तिव का जिसने न केवल दलित-शोषित वर्ग के लोगों को समाज में बराबर का स्थान दिलवाया वरन् समाज में ऊँचे समझी जानी वाली दूसरी जातियों के मन से असमानता का जहर निकालने में भी अपनी महती भूमिका निभाई।
डाॅ. अंबेडकर ने बचपन से ही असमानता, अस्पृश्यता तथा छुआछुत जैसे अराजकता से भरे विचारों के कई दंशों को अपने शरीर और आत्मा पर झेला। अपने विद्यालय में उन्हें एक कोने में जमीन पर घर से लाए गए अपने निजी चटाईनुमे आसन पर बैठना पड़ता था। उन्हें ऐसा करना पड़ता था क्योंकि कक्षा मंे कोई अन्य विद्यार्थी उन्हें अपने बगल में बैठाने को तैयार नहीं था और इस नियम का विरोध करना उनके विद्यालय से निष्कासन का कारण बन सकता था। उन्हें सार्वजनिक नलके से दूसरे बच्चों की तरह पानी पीने की मनाही थी। विद्यालय का चपरासी उनके सामने ऊँचे स्थान से पानी गिराता था और उन्हें अपने हाथों की अंजुली बनाकर पानी पीना पड़ता था। ऐसा करते समय चपरासी इस बात का विशेष ध्यान रखता था कि उनका शरीर पानी रखने वाले बत्र्तन को छुने ना पाये। उन्हें संस्कृत पढ़ने का बहुत मन था परंतु शिक्षकों ने उन्हें पढ़ाने से साफ इंकार कर दिया यह कहकर कि संस्कृत अभिजात्यों की भाषा है और शुद्रों को संस्कृत पढ़ने का कोई अधिकार नहीं है। अपनी जीवनी ’वेटिंग फाॅर द वीज़ा‘ में उन्होंने ऐसी ही एक और अमानवीय घटना का जिक्र करते हुए लिखा है, ’पिताजी कोरेगाँव में नौकरी करते थे तथा मैं और मेरा पूरा परिवार सतारा में रहता था। एक बार पिताजी ने मुझे तथा मेरे भाई को अपने पास आने का बुलावा भेजा। हम दोनो ही पिताजी से मिलने कि लिए ट्रेन से मसूर तक गए। मसूर स्टेशन से कोरेगाँव लगभग 10 मील दूर था। जब हम स्टेशन पहुँचे तब हमंे मालूम पड़ा कि पिताजी ने हमारे आगे की यात्रा के लिए कोई व्यवस्था नहीं की है। यह जानकर हमने स्वयं तांगेवाले के पास जाकर बात की परंतु जब तांगेवाले को हमारी जाति के विषय में पता चला तो उसने हमें ले जाने से मना कर दिया। आखिरकार बड़ी कोशिशों के बाद स्टेशन मास्टर ने एक तांगेवाले को हमें ले जाने के लिए राजी किया परंतु तांगेवाले ने कुछ शर्तें रख दीे। जैसे- हमें दुगुना किराया देना होगा, तांगा हम स्वयं खीचेंगे तथा तांगा मालिक हमारे पीछे-पीछे चलेगा। हमारे पास इन शर्तों को स्वीकार कर लेने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। रास्ते में जब हमने भोजन करने के लिए पानी माँगा तो किसी ने भी हमें पानी नहीं दिया।‘ डाॅ. अंबेडकर के साथ जब यह घटना घटित हुई तब उस समय उनकी उम्र मात्र 9 वर्ष थी। उन्हें शुरू से पता था कि वे लोग अछुत जाति से संबंध रखते थे और इस कारण उन्हें कुछ निश्चित नियमों का पालन करना पड़ता था परंतु इस तरह का शर्मनाक एवं अमानवीय व्यवहार उनके साथ पहले कभी नहीें हुआ था। इस घटना ने उनके मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ी।
इस घटना के कई वर्षों के बाद वे छात्रवृत्ति पर विदेश गए। वहाँ से अर्थशास्त्र और कानून की पढ़ाई करके तथा डाॅक्टरेट की डिग्री लेकर वापस भारत लौटे। भारत वापस लौटने के बाद भी उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया और जाति का कलंक उनके साथ जुड़ा रहा। वे जिस सरकारी दफ्तर में काम करते थे, वहाँ के लोग भी उनके साथ छुआछुत से भरा व्यवहार करते थे। कोई उन्हें फाइल नहीं देता था। चपरासी उनके लिए पानी नहीं लाता था। उन्हें रहने के लिए आवास नहीं मिला। ये सारी अमानवीय घटनाएँ और इन जैसी अनेक दूसरी घटनाओं का सामना उन्हें सिर्फ़ इसलिए करना पड़ा क्योंकि वे दलित समुदाय से आते थे।
परंतु अनेक दूसरे लोगों की तरह इसे उन्होंने अपनी नियति मानने और यथार्थ को जस का तस स्वीकार करने से इंकार कर दिया। स्वयं एवं अपने जैसे अनेक लोगोें को ’मानव‘ होने का सम्मान दिलाने के लिए उन्होंने पुरानी परंपराओं को चुनौती दी विकृत मानसिकता से भरी मान्यताओं का खंडन किया, लोगों को उनके मानवीय अधिकारों के प्रति जागरूक किया, विरोध के बावजूद संघर्ष जारी रखा तथा इस क्रम में भारत के सबसे बड़े विधान के शिल्पकार और वास्तुकार के रूप में सदा के लिए अमरत्व को प्राप्त हो गए।
’बाबा साहेब‘ के नाम से लोकप्रिय डाॅ. अंबेडकर सदा के लिए मानव जाति की स्मृतियों में अन्याय के विरूद्ध बुलंद आवाज़ उठाने वाले के रूप में, अंधेरों से लड़ने वाले एक प्रकाशपुंज के रूप में जीवित रहेंगे। उनके विचार और समाज सुधार के क्षेत्र में किए गए उनके अतुलनीय कार्य हमेशा हमारी प्रेरणा शक्ति और पथप्रदर्शक बने रहेंगे।