योग व्यक्तिगत सृजनात्मकता के विकास का विज्ञान है…
आधुनिकीकरण के कारण मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है जिस कारण मन, भावना, प्राण और शरीर में असमंजस उत्पन्न हो रहे हैं जो कई प्रकार के व्याधियों को जन्म देती है l वहीं हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी देन योग द्वारा शारीरिक, मानसिक रूप से ठीक भी हो रहे हैं। जब शरीर निरोग होगा तभी धर्म, त्याग, तपस्या, ध्यान की जा सकती है और हम सभी अपने वास्तविक स्वरूप में आ सकते हैं।
स्कंद पुराण में कहा गया है कि :
आत्मज्ञानेन मुक्तिः स्यात्तच्च योगादृते नहि ।
स च योगेश्वरं कालमभ्यासादेव सिध्यति ॥
अर्थात आत्मज्ञान से मुक्ति मिलती है बिना आत्मज्ञान के नहीं पर वह आत्मज्ञान भी योगाभ्यास अनुष्ठान के बिना परिपक्व नहीं होता है और वह योग भी चिरकाल तक अर्थात संपूर्ण जीवन काल तक सतत अभ्यास से ही सिद्ध होता है अन्यथा नहीं ।
महर्षि पतंजलि ने राजयोग को बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से सूत्र बद्ध किया है, जिसमें उन्होंने यम और नियम द्वारा नीति और सदाचार से अष्टांग योग को प्रारंभ कर शारीरिक स्थिरता के साथ मानसिक क्षमताओं का वर्णन करते हुए अंत में आत्मसाक्षात्कार को जिस प्रकार से उन्होंने समझाया है वह निश्चय ही सराहनीय है।
पतंजलि योग सूत्र में मन के जिन पक्षो की चर्चा की गई है वे आधुनिक मनोविज्ञान के द्वारा वर्णित मन से कहीं ज्यादा सूक्ष्म और सटीक है ।
योग की आवश्यक आधारशिला योग सूत्रो में रचना के साथ ही पूर्ण हो चुकी थी। बाद में इसके अतिरिक्त कई अन्य ग्रंथों एवं महर्षि आए जिन्होंने योग साधना पर अपने विचार रखें।
इन सभी ने स्वस्थ शरीर को प्रथम स्थान दिया। जिसे आसन, प्रणायाम, षट् क्रिया द्वारा ठीक किया जा सकता है। अन्त मे आत्म ज्ञान या आत्म साक्षात्कार की बात कहीं गई ।
आज के समय में हम सभी किसी ना किसी रोग से ग्रसित रहते हैं और योग को अपनाते भी है। शरीर पर साकारात्मक प्रभाव दिखाई भी देता है।
कुछ लोग ठीक होने के बाद योगाभ्यास करना बंद कर देते हैं जोकि बिल्कुल गलत है। आप लगातार अभ्यास को करते रहिए क्योंकि आज भी आपको अपनी .क्षमताओं का पता नहीं है, जिसे निरंतर अभ्यास के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। एक स्वस्थ जीवनशैली जीने की कला है योग। योग के द्वारा शरीर को रोगमुक्त, मन की शांति एवं आत्मा के स्वरूप से अवगत होते हैं ।
इस शरीर को ठीक रखने एवं आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिए मानसिक स्वस्थ का होना अति आवश्यक क्योंकि मानसिक स्वास्थ्य का संबंध व्यक्ति के भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कल्याण से है जब मानसिक शांति होगा तभी जाकर स्वास्थ्य शरीर प्राप्त होगा और आत्मा को जाना जा सकता है।
हमारे जीवन में किसी भी प्रकार की विपत्तियों का निदान योग द्वारा संभव है चाहे रोजमर्रा की दिनचर्या के लिए पर्याप्त ऊर्जा का होना से लेकर गंभीर
व्याधियो के निदान के लिए योग परम औषधि है।
यह एक ऐसा विज्ञान है जो कि मनुष्य के सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन को सुंदर एवं सुखमय बनाने के साथ-साथ .मोक्षरूपी परम लक्ष्य की प्राप्ति भी करवाता है।
महर्षि धेरण्ड ने योग को सबसे बड़ा बल कहा है। श्री कृष्ण ने गीता में योग साधना को हीं सर्वश्रेष्ठ कहा है।
हठयोग प्रदीपिका के अनुसार युवा, वृद्ध, अतिवृद्ध, रोगी, दुर्बल सभी योग के अभ्यास द्वारा सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
अत: योग को व्यक्तिगत सृजनात्मकता के विकास का विज्ञान कहा गया है। संपूर्ण जीवन एवं चेतना का विज्ञान कहा गया है।
डॉ. परिणीता सिंह
वाइस चेयरपर्सन
इंडियन योग असोसिएसन ( IYA)झारखंड राज्य समिति
सचिव, योग मित्र मण्डल, राँची
ब्याख्यता, योग विभाग, राँची विश्वविद्यालय