देशभर में आज मनाई जा रही बकरीद, क्या आप जानतें है क्या है इसके पीछे का इतिहास…आखिर क्यों मनाया जाता है ईद-उल-अजहा??…

0
Advertisements
Advertisements

लोक आलोक न्यूज सेंट्रल डेस्क:बकरीद को मनाने का भी अपना एक इतिहास है. इसका इतिहास अल्लाह के पैगंबर हजरत इब्राहिम से जुड़ा हुआ है. इस्लाम धर्म की मान्यताओं के मुताबिक, हजरत इब्राहिम ने जब अपने बेटे की कुर्बानी देने का निश्चय किया तभी इस पर्व की नींव पड़ी. जानिए, क्या है इसका इतिहास–इसका इतिहास अल्लाह के पैगंबर हजरत इब्राहिम से जुड़ा हुआ है. इस्लाम धर्म की मान्यताओं के मुताबिक, हजरत इब्राहिम ने जब अपने बेटे की कुर्बानी देने का निश्चय किया तभी इस पर्व की नींव पड़ी.

Advertisements
Advertisements

इस्लाम में मान्यताओं के मुताबिक, हजरत इब्राहिम अल्लाह के पैगंबर थे. एक बार अल्लाह ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी. अल्लाह उनके सपने में आए तो उनसे उनकी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने की मांग की. हजरत इब्राहिम की नजर में उनकी सबसे प्यारी चीज उनका बेटा इस्माइल था. कहा जाता है कि उनके बेटे का जन्म तब हुआ था जब इब्राहिम 80 साल के थे. इसलिए भी उन्हें अपने बेटे से विशेष लगाव था.सपने में अल्लाह के आने के बाद हजरत इब्राहिम ने फैसला लिया कि उनके पास सबसे प्यारी चीज उनका बेटा है, इसलिए वो उसे ही अल्लाह के लिए कुर्बान करेंगे.

फैसला करने के बाद हजरत इब्राहिम बेटे की कुर्बानी देने के लिए निकल पड़े. इस दौरान उन्हें एक शैतान मिला और उसने उन्हें कुर्बानी न देने की सलाह दी. शैतान ने कहा, अपने बेटे की कुर्बानी कौन देता है भला, इस तरह तो जानवर कुर्बान किए जाते हैं.

शैतान की बात सुनने के बाद हजरत इब्राहिम को लगा कि अगर वो ऐसा करते हैं तो यह अल्लाह से नाफरमानी करना होगा. इसलिए शैतान की बातों को नजरअंदाज करते हुए वो आगे बढ़ गए.जब कुर्बानी की बारी आई तो हजरत इब्राहिम ने आंखों पर पट्टी बांध ली क्योंकि वो अपने आंखों से बच्चे को कुर्बान होते हुए नहीं देख सकते थे. कुर्बानी दी गई, फिर उन्होंने आंखों से पट्टी हटाई तो देखकर दंग रह गए. उन्होंने देखा की उनके बेटे के शरीर पर खरोंच तक नहीं आई है. बेटे की जगह बकरा कुर्बान हो गया है. इस घटना के बाद से ही जानवरों को कुर्बान करने की परंपरा शुरू हुई.

हजरत इब्राहिम के दौर में बकरीद वैसे नहीं मनाई जाती थी, जैसे आज सेलिब्रेट की जाती है. उस दौर में मस्जिदों या ईदगाह पर जाकर ईद की नमाज पढ़ने का चलन नहीं शुरू हुआ था. इस चलन की शुरुआत पैगंबर मोहम्मद के दौर में हुई. इस्लाम से जुड़े लोगों का कहना है, यूं तो बकरीद के मौके नमाज ईदगाह और मस्जिद दोनों जगह अदा की जा सकती है, लेकिन ईदगाह पर जाकर नमाज अदा करना बेहतर माना जाता है. यहां आसपास के इलाके के मुस्लिम समुदाय के सभी लोग इकट्ठा होते हैं. सभी एक-दूसरे के गले लगते हैं और बधाई देते हैं.

Thanks for your Feedback!

You may have missed